Tuesday, March 3, 2020

'थप्पड़' फ़िल्म ने मर्दों के डर पर उंगली रख दी है

ये थप्पड़ फ़िल्म का रिव्यू नहीं है. बस फिल्म से गुज़रते हुए उठे कुछ सवाल हैं. सवाल जो परेशान करते रहे, सवाल जो उत्तर न मिलने की सूरत में दिल में कोई पुराना ज़ख़्म बनकर बैठ गए. सवाल, जिसे सबने ढका, सबने छिपाया, मानो वो कोई सवाल ही नहीं था.

ये कुछ 22 साल पुरानी बात है. मेरी कज़न की शादी थी. एक रात नाच-गाने की महफ़िल जमी और देर रात तक चलती रही. उसी बीच ये हुआ कि उस बड़े से हॉल के एक कोने में भाई ग़ुस्से में आए और उन्होंने भाभी को एक ज़ोर का थप्पड़ मार दिया.

उस शोर के बीच भी थप्पड़ की आवाज़ ऐसे सुनाई दी जैसे भरी महफ़िल में कोई गोली चला दे. अचानक मुर्दहिया सन्नाटा छा गया. गाना बंद, सब चुप. जैसे अचानक कर्फ्यू की घोषणा हुई हो और सब दृश्य से ग़ायब.

रात बीत गई. अगले दिन सब कुछ पहले जैसा ही हो गया. सब ख़ुश थे, सब सज रहे थे, सब शादी में मगन थे. घर की बड़ी-बुजुर्ग औरतें, घर की जवान औरतें, बहुएं, लड़कियां, घर के मर्द. सबने अपनी ख़ुशी की स्क्रिप्ट में से वो थप्पड़ ऐसे डिलीट किया कि मानो वो कभी था ही नहीं.

हालांकि, उसका निशान रह गया था. सिर्फ़ दिल पर नहीं, गोरी-चिट्टी भाभी के बाएं गाल पर भी. भाई ख़ासे कद्दावर, लहीम-शहीम मर्द थे. उनके थप्पड़ से भाभी का बायां गाल सूज गया था, आंखों के नीचे काला पड़ गया था.

फिर बस इतना ही हुआ कि उस बहन की शादी की तस्वीरों में भाभी की तस्वीर कहीं नहीं थी. उनकी आख़िरी तस्वीर बस थप्पड़ वाली रात के कुछ मिनट पहले की है.

पिछले 22 सालों में कितनी बार हम दीदी की शादी के एलबम से गुज़रे, लेकिन मुझे याद नहीं कि कभी किसी ने ग़लती से भी उस शाम का ज़िक्र किया हो.

मां ने इतना ही कहा कि उस रात भाभी का ऐसे सबके बीच हंसी-ठिठोली करना भाई को पसंद नहीं आया. कहते हुए पीड़ा से उनकी आंखें सिकुड़ गईं लेकिन ये सवाल उन्होंने भी नहीं किया कि मारा कैसे. थप्पड़ मारने का हक़ कैसे मिला.

हालांकि इस देश के लाखों परिवारों की तरह हमारे परिवार में भी थप्पड़ का इतिहास पुराना है. ये न कोई नई बात है, न ही बड़ी बात.

हमारी कहानी में ऐसे तमाम थप्पड़ घर की दीवार पर जमी सीलन और फफूंद की तरह टंके हुए है, जिस पर औरतें अपनी ख़ामोशी और मुस्कुराहट का पर्दा डाले रहती हैं.

ज़्यादा वक़्त नहीं लगा ये समझने में कि घर की कोई औरत ऐसी नहीं कि जिसकी कहानी में कभी बात-बेबात उठे मर्द के थप्पड़ का ज़िक्र न हो.

दाल में नमक ज़्यादा हुआ तो थप्पड़ मार दिया, औरत ने पलटकर जवाब दिया तो थप्पड़ मार दिया, कोई बात मर्द के मन-मुताबिक़ न हुई तो थप्पड़ मार दिया.

थप्पड़ कभी भी, किसी भी बात पर उठ सकता था. बात किसी वाजिब वजह की नहीं थी, बात उस विशेषाधिकार की थी.

मर्द को अधिकार था. उसे दिया गया था और उसने पूरे हक़ और आत्मविश्वास से अपने पास सुरक्षित रखा था. थप्पड़ मारने वाले तो सवाल करते नहीं थे, जो खा रही थीं, उन्होंने भी नहीं किया क्योंकि सवाल करतीं तो जाती कहां.

थप्पड़ तो हर घर में पड़ रहा है, लेकिन एक थप्पड़ पर औरत घर से निकल जाए तो जाएगी कहां?

नॉर्वेजियन नाटककार हेनरिक इब्सन की नोरा ने तो बिना थप्पड़ खाए ही अपने पति हेल्मर का घर छोड़ दिया क्योंकि उसे लगा कि उस घर में उसकी हैसियत एक गुड़िया से ज़्यादा नहीं है.

इब्सन ने ये नाटक 'डॉल्स हाउस' 1879 में लिखा था जो बाद में फेमिनिस्ट डिसकोर्स का कल्ट बन गया. उस ज़माने में लोगों की इस नाटक के बारे में ये राय थी कि पति न तो पीटता है, न उसका कोई और अफ़ेयर है, न वो जालिम है. फिर नोरा को किस बात की इतनी ऐंठ थी?

जैसे इस फ़िल्म के इंटरवल में मेरे बगल में बैठे दो लड़के आपस में बात कर रहे थे कि ये कुछ ज़्यादा ही ड्रामा नहीं कर रहीं. इतना अच्छा हसबैंड है. ओवर लग रहा है यार.

मज़े की बात थी कि वो दो लड़के अकेले फ़िल्म देखने आए थे. अगर पत्नी या गर्लफ्रेंड हो तो उन्हें साथ लेकर नहीं आए थे. क्या पता रेकी करने आए हों, गर्लफ्रेंड को दिखानी चाहिए या नहीं.

इब्सन की कहानी तो नोरा के छोड़ने के साथ ख़त्म हो गई थी. कोई नहीं जानता कि उसके बाद नोरा का क्या हुआ. क्या नोरा के पास पढ़ाई-लिखाई, काम, नौकरी का कोई ज़रिया था? क्या नोरा के पिता ने अपनी संपत्ति में आधा हिस्सा नोरा को दिया था? कोई घर था उसके पास जहां वो जा सकती थी, अपनी आजीविका कमा सकती थी?

मि. हेल्मर तो काफ़ी सफल, धनी, कुलीन व्यक्ति थे. नोरा की पहचान इतनी ही थी कि वो मिसेज हेल्मर थी. ये पहचान छोड़ दे तो क्या बचा रह जाता है उसके पास?

नोरा की आगे की कहानी 2004 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाली ऑस्ट्रियन लेखिका एल्फ्रीडे येलेनिक ने लिखी. 1982 में उन्होंने एक नाटक लिखा, 'व्हॉट हैपेंड आफ्टर नोरा लेफ्ट हर हसबैंड.'

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